शुक्रवार, 31 जुलाई 2009

श्रद्धांजलि


बहुत दिनों से कुछ लिखना चाह रहा था पर यह अलसपन के कारण संभव नही हो पा रहा था।आज जब कलम लेकर बैठा हूँ तो अनायास ही ख्याल आया- कलम के जादूगर का।आज जब ब्लॉग पर यह मेरी पहली पोस्ट है तो सोचा क्यूँ नही इस महान व्यक्तित्व को श्रद्धा के पुष्प अर्पित करता चलु।
सम्पूर्ण जीवन साहित्य को समर्पित करने वाले इस कर्मयोगी के बारे में जितना भी कुछ कहा या लिखा जाए वह कम है। वाराणसी से कुछ दूर लमही गाँव में ३१ जुलाई १८८० को पैदा हुए धनपत राय का बचपन अभावों में ही गुजरा। इस पर सोतैली माँ का बालक धनपत के बाल्य-मन में समय के द्वारा दिये गए घाओं की टीस को बढाता ही रहा।शायद यही दर्द उनके उपन्यास कर्मभूमि का नायक अमरकांत बयां करता नजर रहा है-"जिंदगी की वह उम्र जब को मुहब्बत की सबसे ज्यादा जरुरत होती है,बचपन है। उस वक्त पोधे को तरी मिल जाए तो जिंदगी भर के लिए उसकी जड़े मजबूत हो जाती है। उस वक्त खुराक पाकर उसकी जिंदगी खुश्क हो जाती है।" बावजूद इसके जैसे सोना अग्नि में तप कर और मुखरित हो जाता है,ठीक वैसे ही धनपत का एक नया चेहरा सामने आया जिसे मैं और आप प्रेमचंद के नाम से जानते हैं।
उर्दू साहित्य से उन्होंने सबसे पहले लिखना शुरु किया फिर धीरे-धीरे एक अच्छे साहित्यकार के रूप में स्थापित कर लिया। उनकी प्रमुख उपन्यासों में गोदान,कर्मभूमि,गबन,सेवा-सदन ,निर्मला और रंगभूमि जैसे कालजयी रचनाये शामिल हैं।इसके अलावे उन्होंने कई कहानिया लिखी जिसमे बूढी काकी,कफ़न,पंच-परमेश्वर,पूष की रात आदि शामिल है। उन्होंने अपनी रचनाओं आम आदमी को खासा महत्व दिया है जो की उन्हें ख़ास बनता है। इसके अलावा वो एक देशभक्त भी थे जिन्होंने जनमानस में देश को आजाद कराने का संदेश फैलाया। उन्होंने समाज मेरी कुरीतियों के खिलाफ भी आवाज़ उठाई
लेकिन आज यह कहते हुए शर्म आती है की प्रेमचंद जैसे महान रचनाकार भी हासिये पे ढ़केल दिये गए है। हद तो तब हो जाती है जब कुछ नेता उनके नाम पर छुद्र राजनीति करते हैं।यह सिर्फ़ हमारे देश का दुर्भाग्य है.
आख़िर में उस महान कथा-सम्राट को श्रद्धा के पुष्प।

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