मंगलवार, 14 दिसंबर 2010

क्या ऐसा भी हो सकता है भला कभी!!!!!!


जानते हो.....
कल रात सर में,
तेज दर्द हुआ था मुझे.
मालुम नहीं कहाँ से-
लेकिन हाँ,
वो आ बैठी थी मेरे सिरहाने!

ज्यादा तो नहीं...
पर इतना याद है मुझे,
वह तमाम रात,
अपने आसुओं से,
भिगो-भिगो सर पे रक्खी पट्टी,
बदलती रही.

शायद...
कुछ नाराज भी थी,
बोली..रोहित अपना ख्याल भी,
कर लिया करो कभी.
पकड़ हाथ उसका तब कहा मैंने उससे,
कैसे...अब तुम साथ भी तो नहीं होती मेरे?

वह...
मुस्कुराई थी तब,
झुका सर अपना मेरे पलकों को चुम,
कहा उसने-
पगले..ऐसा क्यों कहते हो तुम,
क्या ऐसा भी हो सकता है भला कभी!!!!!!

(चित्र-गूगल से साभार)

जब आप कल्पना की दुनिया को जीते हो..
और ऐसा कुछ हो जाता हो!
तो यथार्थ व्यर्थ हो जाता है...है न ?
...............रोहित!!!!!!


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आप मेरी इस रचना को यहाँ भी देख सकते हैं....

http://urvija.parikalpnaa.com/2011/02/blog-post_26.html

मंगलवार, 30 नवंबर 2010

जीवन!!!!!!!!


क्या है जीवन?


कभी रोता है बचपन,
तो हँसता है यौवन ,
और बेबस है उम्र का चौथेपन ..
हाँ इनके मूल मे है जीवन ,
यही है जीवन!!!


शैशव-काल का भोलापन ,
या यौवन के मद में चूर हो-
किया गया पागलपन ,
फिर अतीत को झुठलाने की खातिर-
बुढ़ापे में ओढा गया साधुत्व का आवरण...
हाँ इनके मूल मे है जीवन,
यही है जीवन!!!


सतत अविरल प्रवाह है जीवन,
कभी दुग्ध-सी श्वेत तो,
कभी अमावास-सी श्यामल है जीवन
तमाम दुराग्रहो से निर्लिप्त,
विविध रंगों से युक्त-
सतरंगी है जीवन .


हाँ प्रकृति के मूल में है जीवन,
यही है जीवन!!!
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इतने दिनों के बाद पोस्ट करते वक़्त कुछ कहते नही बन रहा है...सच है,
यहाँ से दूर रहना मेरे लिए काफी तकलीफदेह था.
उम्मीद है आगे से मैं आप लोगो से निरंतर जुडा रहूँगा...
आपके प्यार व आशीर्वाद का आकांछी ------ रोहित!!!!!!

(चित्र- गूगल से साभार)

रविवार, 25 अप्रैल 2010

अधूरी कविता और मेरा दर्द!!!!!!



लिखता तो हूँ॥
पर उन्हें पढ़ अब रोम-रोम,
स्पंदित नहीं होता।
क्योंकि शायद अब उन लिखे गए शब्दों में,
दिल से निकला हुआ,
उदगार भी तो नहीं होता।

न ही मेरे लिखे गए शब्दों में ,
अब चुलबुलाहट होती है,
और न ही कोई गंभीरता।
बस अगर अब उनमे कुछ होता भी है,
तो कविता मूल भावना के खिलाफ ,
सिर्फ औ' सिर्फ नीरसता ।

ऐसे में जब शब्द माला मेरे न चाहने के बावजूद भी,
मेरे सामने ही,
टुट-टुट कर है बिखर जाता-
एक और कविता के अधूरे रहने पर ,
मेरा मन हर बार की तरह ,
अप्रतिम कष्ट और निराशा से है भर जाता।

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जब मन के भावनाओं को व्यक्त नहीं कर पाता हूँ,
तो कुछ ऐसा ही महसूस होता है.....
ऐसे में जब की लेखन खाद-पानी की तरह,
जरुरत बन गया हो।
--रोहित......

रविवार, 28 फ़रवरी 2010

इस बार होली में...


होली का त्यौहार है जो आया,
अपने संग विविध रंग समेटे;
उसमें अपने प्रेम का ,
गाढ़ा रंग मिलाना तो,प्रिये ।


हो उठे दिल के तार झंकृत ,
रंगोत्सव के इस बेला में;
ऐसा ही कोई फागुन-गीत ,
गा-गा मेरे संग झुमना तो,प्रिये ।


रंगों ने रंगों के संग मिल,
जैसे अपने अस्तित्व मिटाए;
वैसे ही सब से मिल गले,
अपने-पराये का भेद मिटाना तो,प्रिये ।


फाग का रंग है जो शबाब पर पुरे,
मिटा राग-द्वेष ,खोल कपाट अपने दिल के;
खुद भी जीवन रंग में रंग,
इस बार होली में,मुझे भी रंगना,प्रिये ।

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आइये,इस बार होली में
हम जीवन के विविध रंगों में रंग जाएँ.....
साथ ही आपसी राग-द्वेष मिटाकर,
जीवन-पथ पर बढ़ने को उद्धत हो......

होली की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ-
रोहित.....





गुरुवार, 11 फ़रवरी 2010

उत्सव के बहाने!!!!!!!!!!





पिछले दिनों हरियाणा के लोकल कोर्ट में रुचिका-कांड के आरोपी पूर्व डीजीपी राठौर पर एक युवक द्वारा हमला किया गया। बताया जा रहा है कि हमलावर उत्सव शर्मा बनारस हिंदू विश्वविद्यालय का गोल्ड - मेडलिस्ट छात्र रह चुका है उत्सव के इस कृत्य को लेकर विभिन्न क्षेत्र के लोगों ने अपने-अपने ढंग से टिप्पन्नियाँ की। ब्लॉग-जगत में भी इस घटना को लेकर खासा बवाल मचा है उत्तमा जी और संजीव जी के ब्लॉग पर लिखे पोस्ट भी मैंने पढ़ेएक और जहाँ उत्तमा जी ने अपने ब्लॉग ( http://kalajagat.blogspot.com/) पर लिखे अपने पोस्ट में उत्सव को सही ठहराते हुए निर्दोष करार दिया है ,वहीं संजीव जी अपने ब्लॉग पर (http://nayathaur.blogspot.com/2010/02/blog-post_10.html) सिर्फ उत्तमा जी के पोस्ट की आलोचना करते ही नजर आये और अंत में उन्होंने अपने नजरिये को दुसरो पर थोपने का भी यत्न किया(उनके पोस्ट की आखरी पंक्ति-...इसलिये उत्तमा जी, उत्सव के माता- पिता के साथ पूरी हमदर्दी रखते उत्सव के हमले की आप भी पुरजोर निंदा करें तो शायद बेहतर हो। )



बहरहाल ,यहाँ पर मेरा धेय्य किसी खास को समर्थन या विरोध करना नहीं है पर हाँ, इस प्रश्न की ओर ध्यान इंगित करना जरुर है -"क्या वास्तव में हमारे युवा-वर्ग का गुस्सा और क्षोभ पराकाष्ठा को छु रहा है,जिसकी वजह से हमे ऐसी घटनाओं से दो-चार होना पड़ रहा है ?"



संजीव जी ने अपने पोस्ट में उत्सव की मनोदशा के बारे में भी सवाल किया है जिसकी वजह से वह ऐसा करने को उद्धत हुआ वे आगे कहते हैं की चुंकि हमलावर तो पीडिता को जानता था और ही उसका आरोपी से कोई परिचय था,अतः हमे उसके द्वारा किये गए इस कार्य की निंदा करनी चाहिए माफ़ कीजये संजीव जी ,तो क्या सिस्टम के खिलाफ आवाज़ उठाने के लिए मुझे पीड़ित होने का इन्तजार करना होगा ?और तब तक हम राठौर जैसे दरिन्दे को -"मैंने तुम्हारे कानून-व्यवस्था को धत्ता बताया है,और देखूं तो तुम मेरा क्या कर सकते हो ?"की मुद्रा में परिहास करते हुए देखते रहे !!



यह भी क्या बात हुई ,साहब! तुम मेरे गाँव में आग लगा रहे हो और हम इन्तजार करते रहे,पहले आग की लपटे हमारे घर तक पहुंचे तो सहीअफ़सोस तो इस बात का है ,कि आज हमारी माँ-बहने घर से बाहर निकलती है तो मन सशंकित रहता हैस्थिति वाकई में बेहद भयावह हो चुकी हैकहीं किसी की आबरू लुटती रहे ,कहीं कोई बेगुनाह तिल-तिल कर मरता रहे ;और हम बस अन्याय को सहते रहे। कभी पटना में सरेआम लड़की को नंगा किया जाता है,कानपुर में किसी के कपडे तार-तार कर दिए जाते हैं ,और आप समाज के सभ्य और कुलीन लोग कहते हैं कि हम हाथ पे हाथ धरे बैठे रहें और जब इस तरह की घटनाएँ हमारे संवेदनाओं को चोट करती है,और जब कभी क्रोध का उग्र रूप अख्तियार कर हमारे सामने प्रकट होती है तो यही हमारे समाज के लिए निंदनीय हो जाता हैकितना हस्याद्पद है-ऐसे में जबकि आप अपराध की शाखाओं को काटने की बातें करते हो ,और उसी की जड़ो को पानी भी दे रहे होरुचिका केस का आरोपी राठौर भी इसी का उदाहरण मात्र हैअगर विधि-व्यवस्था की बातें करने वालो को लकवा मार गया हो और कानून के रखवाले ही दीमक बन उसे चाटने में लगे हो तो हमारे युवा-वर्ग का खून खोलना तो एक सहज स्वाभाविक प्रतिक्रिया मात्र है



मेरा यहाँ उत्सव को सही टहराने का उदेश्य नहीं हैलेकिन हाँ,अगर उत्सव का यह कृत्य पुरे भारतीय-परिदृश्य के परिपेक्ष्य में भले ही मान्य हो ,पर युवा-वर्ग से होने के नाते में यह पुरे विश्वास के साथ कह सकता हूँ की नयी-पीढ़ी के लिए ये अमान्य भी नहींअगर अधर्म का प्रतिकार करना सहज मनोवृत्ति नहीं,तो यक़ीनन ये मान लीजये की हमारे तथा-कथित समाज में कुछ भी सही नहीं है आज हर युवा मन के अन्दर महाभारत चल रहा है ,सिस्टम के विरुद्ध अनीति के खिलाफ। और ,ऐसे में जब की कानून के नियंता और ठेकेदारों के व्यवहार में परिवर्तन हुआ तो जाहिर सी बात है हमारा यही समाज और भी उत्सव पैदा करेगा







-रोहित.........




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