शुक्रवार, 29 जनवरी 2010

जीवन-नौका


देख रहा हूँ मैं,
खुद को वक़्त की धारा में ,
बहते हुए नौका पर सवार,
बिन पतवार के,
बिना किसी सुरक्षा कवच के ।


देख रहा हूँ मैं,
काल-क्रम की फेनिल लहरें ,
दैत्याकार हो मुझे ग्रसना चाह रही है,
हाँ, उसी नौका को ,
जिसमे सवार हूँ मैं ।


देख रहा हूँ मैं,
जीवन नौका को डूबते उतराते ,
चक्रवाती तूफानों से नित्य टकराते ,
अवरोधों से विरत बहते हुए ,
हाँ,उसी नौका को,जिसमे सवार हूँ मैं ।


-कभी-कभी जिंदगी कितनी बोझिल हो जाती है न ! और तब निराशा के पल
में लगता है जीना कितना मुश्किल है फिर भी हमें आगे बढ़ना होता है........

रोहित ~~जिंदगी की किताब से....








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