
लिखता तो हूँ॥
पर उन्हें पढ़ अब रोम-रोम,
स्पंदित नहीं होता।
क्योंकि शायद अब उन लिखे गए शब्दों में,
दिल से निकला हुआ,
उदगार भी तो नहीं होता।
न ही मेरे लिखे गए शब्दों में ,
अब चुलबुलाहट होती है,
और न ही कोई गंभीरता।
बस अगर अब उनमे कुछ होता भी है,
तो कविता मूल भावना के खिलाफ ,
सिर्फ औ' सिर्फ नीरसता ।
ऐसे में जब शब्द माला मेरे न चाहने के बावजूद भी,
मेरे सामने ही,
टुट-टुट कर है बिखर जाता-
एक और कविता के अधूरे रहने पर ,
मेरा मन हर बार की तरह ,
अप्रतिम कष्ट और निराशा से है भर जाता।
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जब मन के भावनाओं को व्यक्त नहीं कर पाता हूँ,
तो कुछ ऐसा ही महसूस होता है.....
ऐसे में जब की लेखन खाद-पानी की तरह,
जरुरत बन गया हो।
--रोहित......